गर्मियों की एक शाम, छोटे से कस्बे अलवर की गलियों में चहल-पहल थी। नीम के पेड़ की छाँव में बैठी आराधना अपनी साड़ी के पल्लू से माथे का पसीना पोंछ रही थी। उसकी आँखें सामने वाले घर की बालकनी पर टिकी थीं, जहाँ एक युवक बैठा गिटार पर धीमे स्वर में कोई गीत गुनगुना रहा था। वह नया-नया यहाँ आया था—नाम था वैभव। शहर से आए इस लड़के के बारे में कस्बे में चर्चाएँ थीं: "पढ़ाई छोड़कर संगीत में दिल लगा लिया," "अकेला रहता है," "बहुत शांत है..." आराधना ने उसे पहली बार तब देखा था जब वह स्थानीय पुस्तकालय में गीतों की एक पुरानी किताब ढूँढ रहा था। उस दिन, उसकी गहरी आवाज़ ने उसका ध्यान खींचा था: "क्या आपको यहाँ रवींद्रनाथ टैगोर की 'गीतांजलि' मिलेगी?" वह सवाल उसके दिल में उतर गया। एक दिन बारिश में, आराधना की साइकिल का पहिया टूट गया। वैभव ने उसे अपनी छतरी दे दी और बिना कुछ कहे खुद भीगता हुआ चला गया। उसकी यह बेमौसम मदद आराधना के मन में एक अजीब सी गुदगुदी छोड़ गई। धीरे-धीरे, दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगीं। वैभव उसे संगीत सिखाता, और आराधना उसे कस्बे की कहानियाँ सुनाती...